आज लोग राष्ट्रीय शिक्षक दिवस मना रहे हैं. ये वह दिन है जब एक शिष्य अपने गुरु को श्रद्धाभाव से याद करता है. उसकी सफलता के लिए अमूल्य योगदान देता है। गुरु के लिए यद्द्पि किसी खास दिवस आदि का चलन कब से हुआ ये नहीं बताया जा सकता है, लेकिन इतना तो तय है कि बदलते परिवेश में गुरु और शिष्य के रिश्तों के मूल्य भी बदल चुके हैं. ये पावन रिश्ता भी आज आधुनिकता की चपेट में पूरी तरह से जकड़ गया है. जिसमें कभी किसी भी प्रकार की कोई अनुशासन हीनता, असभ्यता, आलोचना या अवहेलना की गुंजाइश ही नहीं थी. अब इन रिश्तों में भी इस प्रकार के शब्दों ने पूरी तरह से एक मजबूत स्थान बना ही लिया है.
ये सर्वविदित है कि भारत कभी विश्वगुरु हुआ करता था. यहां ज्ञान का वो भंडार था जो दुनिया के हर असभ्य को सभ्यता सीखने के लिए खींच लाता था. कई लाख वर्ष पहले भगवान श्रीराम का उनके माता और पिता, भाईयों व गुरुजनों के प्रति मर्यादापूर्ण जीवन ये प्रमाण है कि उन्हें शिक्षित करने वाले कितने उच्चकोटि के विद्वान रहे होंगे. उस समय वैदिक शिक्षा थी जब मां ही किसी पुत्र की प्रथम शिक्षिका हुआ करती थी. उसी शिक्षा के चलते मां कौशल्या ने प्रभु को उनके पिता के मुख से निकले आदेश का पालन करने को कहा व बिना विचलित हुए ही भगवान को वन जाने का विरोध भी नहीं किया. प्रथम शिक्षा प्रभु लक्ष्मण में भी वैसी ही थी जो भाई की रक्षा के लिए निकल गए साथ मे व भगवन भरत व शत्रुघ्न की भी ठीक वैसे ही जिन्होंने भाई के आने तक प्रतीक्षा की व उनकी खड़ाऊं को सिंहासन पर रख कर राजा माना, लेकिन क्या वर्तमान में आधुनिकता के समय मे ऐसी शिक्षाएं मिल रही, ये विचार का प्रश्न जरूर है.गुरु मां की मिली शिक्षा का ही प्रभाव था जो अभिमन्यु ने गर्भ से ही व्यूह भेदन का गुण सीख लिया था.
फिर गुरु के महत्व को देखिए, श्रीराम व अन्य 3 भाई राजा दशरथ को जीवन के अंतिम पड़ाव में प्राप्त हुए थे. लेकिन जब उन्हें मांगने गुरु आये तो राजा ने उन पर पूर्ण विश्वास करते हुए उन्हें सौंप दिया. राजा दशरथ जी को गुरु पर पूर्ण विश्वास था और गुरु उस पर खरे भी उतरे थे. उस समय वो गुरुकुल था जिसको खत्म करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किए गए. आधुनिक पद्धति द्वारा शायद इसी के चलते अब न ही समाज मे श्रीराम दिख रहे और न ही अभिमन्यु.. क्योंकि तब की शिक्षा समाज के निर्माण व चरित्र के निर्माण पर केंद्रित हुआ करती थी और वर्तमान शिक्षा केवल स्वलाभः व आर्थिक लाभ हानि को ध्यान में रख कर हो रही है.
इसी के चलते दुर्भगय ये भी रहा कि समाज गुरुकुलों व वैदिक शिक्षा पद्धति से कोसों दूर चला गया और अपने बेटों से श्रवण कुमार जैसे बनने की कामना रखने वाले अभिभावकों ने भी उच्च डोनेशन दे कर बेटों को मांटेसरी या मिशनरी स्कूलों में भर्ती करवाना शुरू किया. इतना ही नही, गुरुकुलों के जर्जर होते समय इसी देश मे मदरसों की संख्या व उनमे पढ़ने वाले बच्चों की संख्या तेजी से बढ़ी पर उसका समाज को क्या लाभ या हानि हुई इसको भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जानता है. मिशनरी स्कूलों से निकले बच्चो को वहां के टीचरों ने क्या पढ़ाया ये पता नहीं पर अधिकतर निकलने के बाद रामायण, महाभारत की काल्पनिक व श्रीराम, श्रीकृष्ण को केवल चित्रित पात्र बताने लगे. उस समय उनके अभिभावकों ने भी सोचा कि वहां के टीचर्स ने उसे आधुनिक बना दिया लेकिन बाद में उन्हें भी वृद्धावस्था में वृद्धाश्रम में भेज दिया उसी आधुनिक शिक्षा पद्धति ने.
ये कहना गलत न होगा कि आखिरकार मैकाले सफल रहा, फिर आता है. भारत मे खुद को आधुनिकता व सेकुलरिज़्म का झंडाबरदार कहने वाले मीडिया समूहों का नम्बर जूली और मटुकनाथ के रिश्तों को जिस प्रकार से मीडिया के एक वर्ग ने ने कई दिनों तक ब्रेकिंग न्यूज आदि बना कर कुप्रचारित किया वो अभी भी सबको याद है. गुरु शिष्या का ये पावन रिश्ता टी वी पर सबको दिखा दिखा कर कलंकित किया गया और उस समय संस्कार रीति रिवाज़ आदि की दुहाई दे कर इसका विरोध करने वालों को दक्षिणपंथी, चरमपंथी, उन्मादी आदि नामों से सम्बोधित कर के समाज का शत्रु घोषित करवाने के सभी प्रयास किये गए. अब हर दिन वैसे कई मामले देखे व सुने जा सकते हैं जिसमे उनके घर के छात्र भी पीड़ित हुए जो उस समय चटकारे ले कर मटुकनाथ व जूली के शो संवेदना के साथ देख रहे थे.
सरकार ने भी जनता का मन भांपा और वही किया जो अधिकतर जनता चाह रही थी. व्यापारियों ने भी जनता का रुख जाना और जगह जगह मिशनरी स्कूल व मॉन्टेशरी स्कूल खोले.. ऐसे ऐसे सेंट के नाम पर गांवों में स्कूल खुले जिन्हें छात्र तो क्या वहां पढ़ाने वाले टीचर भी नही जानते होंगे कुल मिला कर ये उस शिक्षा का व्यवसाय बन गया. जो सिर्फ चरित्र निर्माण, राष्ट्र निर्माण के लिए दी जाती थी. सुदर्शन राष्ट्र निर्माण संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुरेश चव्हाणके जी संकल्पित हैं अपने राष्ट्र निर्माण अभियान के तहत भारत को एक बार फिर से वैदिक शिक्षा पद्धति की राह पर लाने व गुरुकुलों को पुनर्जीवित करने के लिए जहां लुप्त किये जा रहे उन वेदों उपनिषदों का सच्चे गुरुओं द्वारा पाठ हो जो समाज को फिर से श्रीराम, श्रीकृष्ण व अभिमन्यु दें और गुरु शिष्य का वो पावन संबन्ध फिर से पुनर्जीवित हो सके.
http://dlvr.it/TCr6KD
ये सर्वविदित है कि भारत कभी विश्वगुरु हुआ करता था. यहां ज्ञान का वो भंडार था जो दुनिया के हर असभ्य को सभ्यता सीखने के लिए खींच लाता था. कई लाख वर्ष पहले भगवान श्रीराम का उनके माता और पिता, भाईयों व गुरुजनों के प्रति मर्यादापूर्ण जीवन ये प्रमाण है कि उन्हें शिक्षित करने वाले कितने उच्चकोटि के विद्वान रहे होंगे. उस समय वैदिक शिक्षा थी जब मां ही किसी पुत्र की प्रथम शिक्षिका हुआ करती थी. उसी शिक्षा के चलते मां कौशल्या ने प्रभु को उनके पिता के मुख से निकले आदेश का पालन करने को कहा व बिना विचलित हुए ही भगवान को वन जाने का विरोध भी नहीं किया. प्रथम शिक्षा प्रभु लक्ष्मण में भी वैसी ही थी जो भाई की रक्षा के लिए निकल गए साथ मे व भगवन भरत व शत्रुघ्न की भी ठीक वैसे ही जिन्होंने भाई के आने तक प्रतीक्षा की व उनकी खड़ाऊं को सिंहासन पर रख कर राजा माना, लेकिन क्या वर्तमान में आधुनिकता के समय मे ऐसी शिक्षाएं मिल रही, ये विचार का प्रश्न जरूर है.गुरु मां की मिली शिक्षा का ही प्रभाव था जो अभिमन्यु ने गर्भ से ही व्यूह भेदन का गुण सीख लिया था.
फिर गुरु के महत्व को देखिए, श्रीराम व अन्य 3 भाई राजा दशरथ को जीवन के अंतिम पड़ाव में प्राप्त हुए थे. लेकिन जब उन्हें मांगने गुरु आये तो राजा ने उन पर पूर्ण विश्वास करते हुए उन्हें सौंप दिया. राजा दशरथ जी को गुरु पर पूर्ण विश्वास था और गुरु उस पर खरे भी उतरे थे. उस समय वो गुरुकुल था जिसको खत्म करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किए गए. आधुनिक पद्धति द्वारा शायद इसी के चलते अब न ही समाज मे श्रीराम दिख रहे और न ही अभिमन्यु.. क्योंकि तब की शिक्षा समाज के निर्माण व चरित्र के निर्माण पर केंद्रित हुआ करती थी और वर्तमान शिक्षा केवल स्वलाभः व आर्थिक लाभ हानि को ध्यान में रख कर हो रही है.
इसी के चलते दुर्भगय ये भी रहा कि समाज गुरुकुलों व वैदिक शिक्षा पद्धति से कोसों दूर चला गया और अपने बेटों से श्रवण कुमार जैसे बनने की कामना रखने वाले अभिभावकों ने भी उच्च डोनेशन दे कर बेटों को मांटेसरी या मिशनरी स्कूलों में भर्ती करवाना शुरू किया. इतना ही नही, गुरुकुलों के जर्जर होते समय इसी देश मे मदरसों की संख्या व उनमे पढ़ने वाले बच्चों की संख्या तेजी से बढ़ी पर उसका समाज को क्या लाभ या हानि हुई इसको भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जानता है. मिशनरी स्कूलों से निकले बच्चो को वहां के टीचरों ने क्या पढ़ाया ये पता नहीं पर अधिकतर निकलने के बाद रामायण, महाभारत की काल्पनिक व श्रीराम, श्रीकृष्ण को केवल चित्रित पात्र बताने लगे. उस समय उनके अभिभावकों ने भी सोचा कि वहां के टीचर्स ने उसे आधुनिक बना दिया लेकिन बाद में उन्हें भी वृद्धावस्था में वृद्धाश्रम में भेज दिया उसी आधुनिक शिक्षा पद्धति ने.
ये कहना गलत न होगा कि आखिरकार मैकाले सफल रहा, फिर आता है. भारत मे खुद को आधुनिकता व सेकुलरिज़्म का झंडाबरदार कहने वाले मीडिया समूहों का नम्बर जूली और मटुकनाथ के रिश्तों को जिस प्रकार से मीडिया के एक वर्ग ने ने कई दिनों तक ब्रेकिंग न्यूज आदि बना कर कुप्रचारित किया वो अभी भी सबको याद है. गुरु शिष्या का ये पावन रिश्ता टी वी पर सबको दिखा दिखा कर कलंकित किया गया और उस समय संस्कार रीति रिवाज़ आदि की दुहाई दे कर इसका विरोध करने वालों को दक्षिणपंथी, चरमपंथी, उन्मादी आदि नामों से सम्बोधित कर के समाज का शत्रु घोषित करवाने के सभी प्रयास किये गए. अब हर दिन वैसे कई मामले देखे व सुने जा सकते हैं जिसमे उनके घर के छात्र भी पीड़ित हुए जो उस समय चटकारे ले कर मटुकनाथ व जूली के शो संवेदना के साथ देख रहे थे.
सरकार ने भी जनता का मन भांपा और वही किया जो अधिकतर जनता चाह रही थी. व्यापारियों ने भी जनता का रुख जाना और जगह जगह मिशनरी स्कूल व मॉन्टेशरी स्कूल खोले.. ऐसे ऐसे सेंट के नाम पर गांवों में स्कूल खुले जिन्हें छात्र तो क्या वहां पढ़ाने वाले टीचर भी नही जानते होंगे कुल मिला कर ये उस शिक्षा का व्यवसाय बन गया. जो सिर्फ चरित्र निर्माण, राष्ट्र निर्माण के लिए दी जाती थी. सुदर्शन राष्ट्र निर्माण संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुरेश चव्हाणके जी संकल्पित हैं अपने राष्ट्र निर्माण अभियान के तहत भारत को एक बार फिर से वैदिक शिक्षा पद्धति की राह पर लाने व गुरुकुलों को पुनर्जीवित करने के लिए जहां लुप्त किये जा रहे उन वेदों उपनिषदों का सच्चे गुरुओं द्वारा पाठ हो जो समाज को फिर से श्रीराम, श्रीकृष्ण व अभिमन्यु दें और गुरु शिष्य का वो पावन संबन्ध फिर से पुनर्जीवित हो सके.
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