16 सितंबर : बलिदान दिवस लेफ्टिनेंट कर्नल ए बी तारापोरे जी...अंतिम शब्द- "मैं जा रहा हूं जुबान पर याद रखना, एक इंच भी जमीन न जाने पाए"

ये वो वीर हैं जिनका नाम लेने में भी समस्या थी शायद नकली कलमकारों को.. अपनी एक एक सांस देश की रक्षा के लिए लेने वाले इन सूरमाओं को गुमनाम रहने दिया गया. जो कलमकारों के अक्षम्य पाप का प्रमाण सदा-सदा के लिए रहेगा. उन्ही वीरो में से एक थे आज ही अमरता को प्राप्त करने वाले योद्धा लेफ्टिनेंट कर्नल ए बी तारापोरे जी.. देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम इनकी नस नस मे था और आखिरकार इन्होंने सेना में जाने और देश के दुश्मनों को ठिकाने लगाने का फैसला किया था. इनकी गौरवगाथा आज भी उन स्थलों में गूंजती है जहां इन्होंने भारत माता पर घात लगाए दुश्मनों को मौत के घाट उतारा था .. आज उन्ही वीर का बलिदान दिवस है.


अर्देशिर तारापोरे का जन्म 18 अगस्त, 1923 को बम्बई (अब मुम्बई), महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पुरखों का सम्बन्ध छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना से था, जिन्हें वीरता के पुरस्कार स्वरूप 100 गांव दिए गए थे. उनमें एक मुख्य गांव का नाम तारा पोर था. इसलिए यह लोग तारापोरे कहलाए. बहादुरी की विरासत लेकर जन्मे तारापोरे की प्रारम्भिक शिक्षा सरदार दस्तूर व्वायज़ स्कूल पूना में हुई, जहां से उन्होंने 1940 में मैट्रिक पास किया. उसके बाद उन्होंने फौज में दाखिला लिया.


उनका सैन्य प्रशिक्षण ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल गोलकुंडा में पूरा हुआ और वहां से यह बैंगलोर भेज दिए गए. उन्हें 1 जनवरी 1942 को बतौर कमीशंड ऑफिसर 7वीं हैदराबाद इंफेंटरी में नियुक्त किया गया. आदी ने यह नियुक्ति स्वीकार तो कर ली लेकिन उनका मन बख्तरबंद रेजिमेंट में जाने का था, जिसमें टैंक द्वारा युद्ध लड़ा जाता है. वह उसमें पहुंचे भी लेकिन कैसे, यह प्रसंग भी रोचक है.


एक बार उनकी बटालियन का निरीक्षण चल रहा था जिसके अधिकारी प्रमुख मेजर जरनल इंड्रोज थे. इन्ड्रोज स्टेट फोर्सेस के कमाण्डर इन चीफ भी थे. उस समय अर्देशिर तारापोरे की सामान्य द्रेनिंग चल रही थी, जिसमें हैण्ड ग्रेनेड फेंकने का अभ्यास जारी था. उसमें एक रंगरूट ने ग्रेनेड फेंका, जो ग़लती से असुरक्षित क्षेत्र में गिरा. उसके विस्फोट से नुकसान की बड़ी सम्भावना थी. ऐसे में, अर्देशिर तारापोरे ने फुर्ती से छलांग लगाई और उस ग्रेनेड को उठकर सुरक्षित क्षेत्र में उछाल दिया.


लेकिन इस बीच वह ग्रेनेड फटा और उसकी लपेट में आदी घायल हो गए. जब आदी ठीक हुए तो इंड्रोज ने उन्हें बुला कर उनकी तारीफ की.. उसी दम आदी ने आर्म्ड रेजिमेंट में जाने की इच्छा प्रकट लांसर्स में लाए गए. आदी, यानी लेफ्टिनेंट अर्नल ए. बी. तारापोरे जी, 11 सितम्बर 1965 को स्यालकोट सेक्टर में थे और पूना हॉर्स की कमान सम्हाल रहे थे. चाविंडा को जीतना 1 कोर्पस का मकसद गए. 11 सितम्बर, 1965 को तारापोरे को स्यालकोट पाकिस्तान के ही फिल्लौरा पर अचानक हमले का काम सौंपा गया. फिल्लौरा पर एक तरफ से हमला करके भारतीय सेना का इरादा चाविंडा को जीतने का था.


इस हमले के दौरान तारापोरे अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ ही रहे थे कि दुश्मन ने वज़ीराली की तरफ से अचानक ज़वाबी हमले में जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी. तारापोरे ने इस हमले का बहादुरी से सामना किया और अपने एक स्क्वेड्रन को इंफंटरी के साथ लेकर फिल्लौरा पर हमला बोल दिया. हालांकि तारापोरे इस दौरान घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने रण नहीं छोड़ा और जबरदस्त गोलीबारी करते हुए डटे रहे.


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