पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी क्या है?
पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी परिभाषा
पर्यावरण (परि+आवरण) शब्द का शाब्दिक अर्थ है- हमारे चारों ओर का घेरा अर्थात हमारे चारों ओर का वातावरण जिसमें सभी जीवित प्राणी रहते हैं और अन्योन क्रिया करते हैं।पर्यावरण का अंग्रेजी शब्द एनवॉयरमेंट है जो फ्रेंच भाषा के शब्द एनवॉयरनर से बना है, जिसका अर्थ है 'घेरना।'
अतः पर्यावरण के अन्तर्गत किसी जीव के चारों ओर उपस्थित जैविक तथा अजैविक पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है।
पारिस्थितिकी के अंतर्गत समस्त जीवों तथा भौतिक पर्यावरण के मध्य उनके अंतर संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
पारिस्थितिकी (Ecology) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अर्नेस्ट हैकेल ने 1869 में किया।
परिस्थितिकी तंत्र भौतिक तंत्रों का एक विशेष प्रकार होता है इसकी रचना जैविक तथा अजैविक संगठनों से होती है! यह खुला तंत्र होता है।
पारिस्थितिकी तंत्र (Eco-System) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ए. जी. टांसले द्वारा 1935 में किया गया।
पारिस्थितिकी दो शब्दों से मिल कर बना है जो ग्रीक शब्द " Oekologue" से लिया गया है:
⇒ 'Oekos' का अर्थ घेराव / आस पास का क्षेत्र
⇒ 'Logs' का अर्थ एक पूरे पारिस्थितिकी पर अध्ययन मतलब 'घेराव / आस पास का अध्ययन'
पारिस्थितिकी पर्यावरण अध्ययन का वह भाग है जिसमे हम जीवो, पौधो और जन्तुओं और उनके संबंधो या अन्य जीवित या गैर जीवित पर्यावरण पर परस्पराधीनता के बारे अध्ययन करते है।
पारिस्थितिकी को जीव विज्ञान की शाखा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो जीवो के एक दूसरे के साथ संबंधों और उनके भौतिक परिवेशों की व्याख्या करता है।
पारिस्थितिकी को जीवो के मध्य अन्तः क्रिया और उनके परिवेश के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। पारिस्थितिकी शब्द का वास्तविक अर्थ "घर का अध्ययन" है।
पारिस्थितिकी एक बहुआयामी विज्ञान है एवं विज्ञान की अन्य शाखाओ जैसे भूगोल, भूविज्ञान, मौसम विज्ञान, भूतत्व, भौतिकी और रसायन विज्ञान के साथ इसका संबंध है
पारितंत्र एक प्राकृतिक इकाई है जिसमें किसी विशेष वातावरण के सभी जैविक घटक अर्थात् पौधे, जानवर और अणुजीव आदि अपने अजैविक घटकों (निर्जीव) पर्यावरण के साथ अंतर्क्रिया करके एक सम्पूर्ण जैविक इकाई बनाते हैं, जिसमें वे अपने आवास भोजन व अन्य जैविक क्रियाओं के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं
Q. निम्नलिखित में कौन-सा एक, पारितंत्र शब्द का सबसे अच्छा उदाहरण है-
(a) एक-दूसरे से अन्योन्क्रिया करने वाले जीवों का एक समुदाय
(b) पृथ्वी का वह भाग जो सजीव जीवों द्वारा आवासित है।
(c) जीवों का समुदाय और साथ ही वह पर्यावरण जिसमें वे रहते हैं।
(d) किसी भौगोलिक क्षेत्र के वनस्पति-जात और प्राणि जात।
I.A.S. (Pre) 2015
पारिस्थितिकी की मौलिक संकल्पनाएँ निम्नलिखित है-
1.सभी जीव एवं पर्यावरण आपसी सामंजस्य एवं क्रियाशील संबंधों से अंतर संबंधित हैं।
2. पर्यावरण जो विभिन्न घटकों का समूह है वह अत्यधिक क्रियाशील है। इसकी क्रियाशीलता समय और स्थान के साथ परिवर्तित होती रहती है।
3. जीवों की प्रजातियाँ परिवर्तित पर्यावरण की दशाओं के साथ स्वतः सामंजस्य करने की स्थिति में विकसित होती है, किंतु पर्यावरण का अवकर्षण अनेक प्रजातियों के लुप्त होने का कारण बन जाता है।
4. केवल पर्यावरण ही जीवों को प्रभावित नहीं करता अपितु जीव भी अपने विकास, वृद्धि, विस्तार से तथा परिवर्तित वैज्ञानिक ज्ञान से पर्यावरण को प्रभावित करते हैं।
5. समान प्रकार के पर्यावरण में विभिन्न प्रकार की प्रजातियाँ विकसित हो जाती हैं जिसे 'बायोम' की विचारधारा कहा जाता है।
• पारिस्थितिकी तन्त्र की संरचना में जैविक और अजैविक घटकों को सम्मिलित किया जाता है।
• भौतिक पर्यावरण और उसमें रहने वाले जीव ही पारिस्थितिकी तन्त्र का निर्माण करते है
• अतः प्रत्येक पारिस्थितिकीय तन्त्र दो प्रमुख घटकों में विभाजित किया जाता है-
(1) जैवीय घटक (Biotic Components )
(2) अजैवीय घटक (Abiotic Components)
प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों के मध्य एक समन्वयक का स्वरूप तथा मानव की क्रियाओं का पर्यावरण द्वारा नियंत्रण एवं पर्यावरण पर उनका प्रभाव इसके अध्ययन का मूल है। यही कारण है कि इसकी नित नवीन शाखाओं एवं उपशाखाओं का विकास हो रहा है।
Q. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. पारिस्थितिकी तंत्र में जैविक एवं अजैविक घटक एक-दूसरे पर निर्भर नहीं होते हैं।
2. पारिस्थितिकी तंत्र में जैविक तथ अजैविक घटक दोनों एक-साथ विद्यमान रहते हैं।
उपर्युक्त में से कौन सा/से कथन सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1, न ही 2
जैविक घटक
1. जन्तु समुदाय
2. वनस्पति समुदाय
3. सूक्ष्मजीव
4. मनुष्य
अजैविक घटक
1. प्रकाश
2. ताप
3. आर्द्रता
4. हवा
5. स्थलाकृति
6. मृदा
(i) उत्पादक (Producer)
• हरे पौधे पारिस्थितिकी तन्त्र के उत्पादक हैं।
• यह पौधे क्लोरोप्लास्ट द्वारा और ऊर्जा को ग्रहण कर सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे जल तथा कार्बन डाइआक्साइड द्वारा अधिक ऊर्जा युक्त कार्बनिक पदार्थ के रूप में अपना भोजन बनाते हैं।
• सूर्य ऊर्जा के प्रकाश से संश्लेषण द्वारा भोजन के रूप में रासायनिक ऊर्जा बदलते है।
• सभी प्रकार की घास, वृक्ष, शैवाल (Blue Green Algae) व कुछ बैक्टीरिया इस वर्ग में शामिल हैं।
वास्तव में यह सभी अपनी वृद्धि के लिए स्वयं भोजन की उत्पत्ति करते हैं, इसी से इन्हें उत्पादक कहा जाता है।
इनको स्वयंपोषी जीव भी कहते हैं।
(ii) उपभोक्ता (Consumers)
• ये भोजन के लिए उत्पादकों पर निर्भर करते है। इसके अन्तर्गत सभी जन्तु आते हैं।
• यह पौधों द्वारा बनाये गये भोजन पर निर्भर रहते हैं। इसलिए इन्हें उपभोक्ता कहते है।
• कार्बोहाइहेट, प्रोटीन, विटामिन तथा खनिज तत्व हमारे भोजन के अवयव हैं, जो अनाज, फल, साग-सब्जी तथा विभिन्न पौधों से प्राप्त होते है, यह सभी उत्पादक घटक पर निर्भर करते हैं।
उपभोक्ता वास्तव में परपोषी जीव हैं, इनको निम्न तीन वर्गों में रखा जाता है-
(a) प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumer)
(b) द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumer)
(c) तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary Consumer)
(iii) अपघटक (Decomposer)
• प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादक जीवों के मरने पर मृत शरीर अनेक प्रकार के बड़े जीवाणु, कवक इत्यादि द्वारा अपघटित (Decompose) होते है, जिससे मृत कार्बनिक पदार्थ पुनः सरल अकार्बनिक पदार्थों में बदल जाता है और इस प्रक्रम में जीवाणु ऊर्जा प्राप्त करते है।
अपघटन करने वाले जीवों को अपघटक (Decomposer) अथवा (Reducer) कहते हैं
• अपघटकों को स्कैवेन्वर्स (Scavengers) के नाम से पुकारा जाता है।
चुँआ (Earthworm) कवक (Fungi) बैक्टिरिया आदि अपघटक हैं, जो वनस्पति एवं जीव जगत् के अवशिष्ट व मृत शरीर पर जीवित रहते हैं व उसे जैविक अवशिष्ट को पुनः अजैविक पदार्थ जैसे मृदा में बदल देते हैं।
इस प्रकार जैविक पदार्थ परिस्थितिकी संतुलन बनाये रखने की अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी हैं ।
• वास्तव में अपघटक जैविक पदार्थों को अजैविक खनिजीय तत्वों में बदल देते है, जो मृदा को पोषक तत्व (Nutrients) प्रदान करते हैं, जिससे उनकी उत्पादक शक्ति में वृद्धि होती है और पौधों व घास की उत्पत्ति में सहायक होते हैं।
• इस प्रकार अपघटक अपनी इस कार्यशैली द्वारा पारिस्थितिकी तन्त्र के चक्र को पूरा करने में मददगार साबित होते हैं।
i. पारिस्थितिक तंत्र में प्रविष्ट होने वाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य है जिसे सौर ऊर्जा कहते हैं। पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह केवल एक ही दिशा में होता है।
ii. पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा सौर ऊर्जा का रूपान्तरण रासायनिक ऊर्जा में कर देते हैं जो कि भोजन के रूप में पौधों के उत्तकों में संचित हो जाती है।
iii. जब प्राथमिक उपभोक्ता इन पौधों को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं तो पौधों में संचित ऊर्जा का गमन प्राथमिक उपभोक्ताओं में हो जाता है। प्राथमिक उपभोक्ताओं द्वारा प्राप्त ऊर्जा का कुछ भाग श्वसन क्रिया द्वारा नष्ट हो जाता है शेष उनकी वृद्धि तथा विकास के काम आता है।
iv. प्राथमिक उपभोक्ताओं से भोजन प्राप्त करने के पश्चात् उसमें संचित ऊर्जा द्वितीयक उपभोक्ताओं और द्वितीयक से तृतीयक उपभोक्ताओं में पहुँच जाती है।
v. पौधों एवं जन्तुओं के मरने से उनमें संचित ऊर्जा का स्थानान्तरण अपघटकों (कवक, जीवाणु) में हो जाता है।
इन जीवों के श्वसन से ऊर्जा का कुछ भाग वायुमण्डल में लौट जाता है।
इस प्रकार कोई भी जीव भोजन द्वारा प्राप्त पूर्ण ऊर्जा को अपने में एकत्रित नहीं कर सकता है।
सामान्यतः जब एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में ऊर्जा जाती है तो उसका अधिकांश भाग वायुमण्डल में चला जाता है।
इस प्रकार प्रत्येक पोषण स्तर पर ऊर्जा का प्रवाह एक क्रम में तथा एक ही दिशा में चलता रहता है।
पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह, ऊष्मा गतिकी के नियमों के अनुसार होता है-
नियम 1
• ऊर्जा का निर्माण व नाश नहीं होता, इसका रूपान्तरण होता है।
• उदाहरणार्थ हरे पौधे सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं।
• यही रासायनिक ऊर्जा श्वसन क्रिया के कारण ऊष्मा ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।
खाद्य श्रृंखला (Food Chain)
• खाद्य श्रृंखला विभिन प्रकार के जीवधारियों का एक क्रम है जिसके द्वारा एक पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य ऊर्जा का प्रवाह होता है।
• हरे पौधे भोजन का निर्माण करते हैं जिसका उपयोग प्राथमिक उपभोक्ता अर्थात् शाकाहारी जीव करते हैं।
• प्राथमिक उपभोक्ताओं का द्वितीयक उपभोक्ता (मांसाहारी) एवं द्वितीयक उपभोक्ताओं का तृतीयक उपभोक्ता भोजन के रूप में उपयोग करते हैं।
उदाहरण
(a) हरे पौधे हिरण बाघ
(b) हरे पौधे टिड्डा मेंढक साँप गिद्ध (c) हरे पौधे बिच्छु → मछली बगुला
• पौधों से शुरू होने वाले इस क्रम में प्रत्येक जीव अपने से पहले जीव पर भोजन या ऊर्जा के लिए निर्भर होता है।
• खाद्य श्रृंखला के अंतर्गत उत्पादक, प्रथम उपभोक्ता, द्वितीय उपभोक्ता आते हैं।
• यह श्रृंखला पौधों से शुरू होती है। पौधों को टिड्डा खरगोश हिरन जैसे जीव खाते हैं।
• फिर उन जीवो को दूसरे जीव खाते हैं। इस तरह एक चक्र चलता रहता है।
• खाद्य श्रृंखला में 10% ऊर्जा आगे बढ़ती है जबकि 90% ऊर्जा विलुप्त हो जाती है।
• अधिकतर खाद्य श्रृंखला में 4-5 कड़ियाँ होती हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में सभी जीव एक दूसरे पर निर्भर होते हैं।
Note:- वह बिन्दु या स्तर जिस पर एक जीव से दूसरे जीव में ऊर्जा का स्नांतरण होता है, पोषण स्तर (trophic level) कहलाता है।
खाद्य श्रृंखला का प्रत्येक स्तर पोषण स्तर या ऊर्जा स्तर कहलाता है।
• इस श्रृंखला के एक सिरे पर हरे पौधे अर्थात् उत्पादक होते हैं तथा दूसरे सिरे पर अपघटक होते हैं।
• इनके मध्य विभिन्न स्तर के उपभोक्ता होते हैं।
• प्रत्येक स्तर में ऊर्जा प्रवाह में कमी होती जाती है।
अतः श्रृंखला शृंखला जितनी छोटी होगी उतनी ही अधिक ऊर्जा उत्पादक से उपभोक्ता को प्राप्त होगी।
एक पारिस्थितिक तंत्र में अनेक खाद्य श्रृंखलाएँ होती हैं जो किसी स्तर पर परस्पर संबंधित भी हो सकती हैं।
आहार जाल (Food Web)
• विभिन्न आहार श्रृंखलाओं की लंबाई एवं जटिलता में काफी अंतर होता है।
• आमतौर पर प्रत्येक जीव दो अथवा अधिक प्रकार के जीवों द्वारा खाया जाता है, जो स्वयं अनेक प्रकार के जीवों का आहार बनते हैं।
• अतः एक सीधी आहार श्रृंखला के बजाय जीवों के मध्य आहार संबंध शाखान्वित होते हैं तथा शाखान्वितश्रृंखलाओं का एक जाल बनाते हैं जिससे आहार जाल कहते हैं।
आहार श्रृंखला और आहार जाल में अंतर
आहार श्रृंखला (Food Chain)
(i) इसमें कई पोषी स्तर के जीव मिलकर एक श्रृंखला बनाते है।
(ii) इसमें ऊर्जा प्रवाह की दिशा रेखीय होती है। (iii) आहार श्रृंखला समान्यतः तीन या चार चरण की होती है।
सकल प्राथमिक उत्पाद (GNP) प्राथमिक उत्पादकों द्वारा उत्पादित रासायनिक ऊर्जा की कुल मात्रा
शुद्ध प्राथमिक उत्पाद (NPP) प्राथमिक उत्पादों की श्वसन क्रिया में खर्च होने के बाद शेष बची ऊर्जा
ऊर्जा प्रवाह
खाद्य श्रंखला में ऊर्जा का एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में क्रमबद्ध स्थानांतरण
ऊर्जा प्रवाह का 10% नियम
एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में केवल 10% ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। जबकि 90% ऊर्जा वर्तमान पोषी स्तर में जैव क्रियाओं में उपयोग होती है। इसे ही ऊर्जा प्रवाह का 10% नियम कहते हैं।
आहार श्रृंखला के तीन या चार चरण होने के कारण
• उपभोक्ता के अगले स्तर के लिए ऊर्जा की बहुत ही कम मात्रा उपलब्ध हो पाती है।
अतः आहार श्रृंखला में सामान्यतः तीन अथवा चार चरण ही होते हैं।
• प्रत्येक चरण पर ऊर्जा का ह्रास इतना अधिक होता है कि चौथे पोषी स्तर के बाद उपयोगी ऊर्जा कम हो जाती है।
आहार श्रृंखला में ऊर्जा प्रवाह चक्रीय नहीं रेखीय होती है, क्योंकि-
• ऊर्जा का प्रवाह एकदिशिक अथवा एक ही दिशा में होता है अर्थात रेखीय होता है।
● क्योंकि स्वपोषी जीवों ( हरे पौधों) द्वारा सूर्य से ग्रहण की गई ऊर्जा पुनः सौर ऊर्जा में परिवर्तित नहीं होती तथा शाकाहारियों को स्थानांतरित की गई ऊर्जा पुनः स्वपोषी जीवों को उपलब्ध नहीं होती है।
• जैसे यह विभिन्न पोषी स्तरों पर क्रमिक स्थानांतरित होती है अपने से पहले स्तर के लिए उपलब्ध नहीं होती और अंतिम उपभोक्ता तक पहुँचते-पहुँचते यह नाम मात्र ही रह जाता है जो पुन और ऊर्जा में परिवर्तित नहीं हो पाता है।
आहार श्रृंखला में अपघटकों की भूमिका
• विघटनकारी सूक्ष्मजीव है जो उत्पादकों और उपभोक्ताओं के मृत और क्षय शरीर पर क्रिया करते हैं और उन्हें सरल अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ देते है।
• वे कुछ पदार्थों को अवशोषित करते हैं और बाकी को वातावरण में पुनः चक्रण के लिए या भविष्य में उत्पादको द्वारा उपयोग करने के लिए छोड़ देते है।
पर्यावरण में अपघटकों की महत्वपूर्ण भूमिका है-
(i) ये जैव अपशिष्टो का अपमार्जन करते हैं और इन्हें सरल पदार्थों में परिवर्तित करते हैं। (ii) ये मृदा में कुछ पोषक तत्वों को स्थापित करते है और मृदा को उपजाऊ बनाते हैं।
जैव आवर्धन (Biological Magnification)
• आहार श्रृंखला में जीव एक दुसरे का भक्षण करते हैं।
• इस प्रक्रम में कुछ हानिकारक रासायनिक पदार्थ आहार श्रृंखला के माध्यम से एक जीव से दुसरे जीव में स्थानांतरित हो जाते है।
• इसे ही जैव आवर्धन कहते है।
अन्य शब्दों में, आहार श्रृंखला में हानिकारक पदार्थों का एक जीव से दुसरे में स्थानान्तरण जैव आवर्धन कहलाता है।
(ii) अजैविक घटक (Abiotic Components)
इसके अर्न्तगत वातावरण के निर्जीव तत्व सम्मिलित हैं।
इन घटकों को निम्नलिखित तीन अपघटकों में विभाजित किया जाता है-
1. अकार्बनिक घटक (Inorganic Components)
2. कार्बनिक घटक (Inorganic Components )
3. भौतिक घटक (Physical Components)
2. कार्बनिक घटक (organic Components)
• इसके अन्तर्गत कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, जीवांश (Humus) आदि सम्मिलित हैं।
• यह तत्व पौधे तथा मृतक जन्तुओं से प्राप्त होते हैं।
कुछ महत्त्वपूर्ण अजैविक चक्रों का वर्णन
1. गैसीय तथा सेडिमेंट्री चक्र (Gaseous and Sedimentary Cycle)
• हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बन प्रकृति के जैविक विश्व के मूल तत्व हैं।
• ये तीनों तत्व यौगिक रूप से पृथ्वी के कुल जैविक पदार्थ का 99 प्रतिशत भाग हैं।
वास्तव में सभी जैविक मौलिक्यूलस में हाइड्रोजन (H) तथा कार्बन (C) पाए जाते हैं।
• इनके अतिरिक्त, नाइट्रोजन, मैगनिशियम, कैल्शियम, पोटैशियम, सल्फर तथा फॉस्पोट जैसे महत्वपूर्ण पोषक भी जैविक विकास के लिये अनिवार्य हैं ।
• प्रकृति में कई रासायनिक चक्र प्रकार्य करते रहते हैं।
• ऑक्सीजन, कार्बन तथा निट्रोजन सभी गैसों के चक्र वायुमंडल में उपस्थित हैं।
• अन्य तत्व में सेडीमेंट्री चक्र मौजूद हैं, जो खनिजों पर आधारित हैं।
• सेडीमेंट्री में विशेष रूप से फॉस्फोरस, कैल्शियम तथा सल्फर सम्मिलित रहते हैं।
• ये तत्व जैविक एवं अजैविक दोनों ही घटको में सम्मिलित रहते हैं।
• ये पुनचक्र प्रक्रिया बायोकेमिकल साइकिल कहलाती है जिसमें जैविक तथा अजैविक दोनों सम्मिलित रहते हैं।
ii. कार्बन एवं ऑक्सीजन चक्र (Carbon and Oxygen Cycles )
• इन दोनों चक्रों में भारी घनिष्ठता पाई जाती है।
वायुमंडल ऑक्सीजन का भंडार है। ऑक्सीजन, भूपटल में भी पाई जाती है, परंतु वह रासायनिक रूप से अन्य तत्वों में मिश्रित होने के कारण उपलब्ध नहीं है।
• कार्बन गैस का सबसे बड़ा भंडार सागर तथा महासागरों में है।
• पृथ्वी के कुल कार्बन का 93 प्रतिशत महासागरों में पाया जाता है, जिसकी मात्रा 39000 बिलियन टन है, परंतु रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में मिश्रित है।
• सागरों में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस प्रकाश संश्लेषण के द्वारा उत्पन्न होती है। जिसमें सुक्ष्म जैविक फाइटोप्लंकटन सहायक होते हैं।
• कार्बन का संचय कुछ कार्बोनेट खनिजों में हो जाता है।
• चूना पत्थर कार्बन एकत्रित करने वाला इसी प्रकार का एक उदाहरण है।
• वायुमंडल में लगभग 700 बिलियन टन कार्बन पाया जाता है।
iii. नाईट्रोजेन चक्र (Nitrogen Cycle)
वायुमंडल की गैसों में सबसे अधिक नाइट्रोजन गैस पाई जाती है।
वायुमंडल में नाइट्रोजन की मात्रा 78.08 प्रतिशत है।
• जैविक अणु की उत्पत्ति में नाइट्रोजन की बड़ी भूमिका होती है।
• जीवन के लिए अनिवार्य प्रोटीन का उत्पादन नाइट्रोजन गैस ही से होता है।
• भारी मात्रा के बावजूद नाइट्रोजन जैविक घटकों को सीधे रूप से प्राप्त नहीं होती।
• नाइट्रोजन की प्राप्ति उन बैक्टीरियाओं के द्वारा होती है जो नाइट्रोजन का उत्पाद करते हैं।
• ये बैक्टीरिया पेड-पौधों और दलहनों की जड़ों में पाये जाते हैं।
• उदाहरण के लिए दलहनों जैसे मटर, उड़द अरहर, मूँग, मसूर, सोयाबीन, लोबिया, गुआर, मूँगफली तथा हरी खाद की फसलें (सनी, पटसन, ढँचा), बरहीम आदि की जड़ों में नाइट्रोजन उत्पन्न होती है।
• दलहन की जड़ों में नाइट्रोजन की गाँठ रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा नाइट्रेट (NO3) तथा अमोनिया (NH3) पैदा करती हैं। इस नाइट्रोजन का पेड-पौधे उपयोग करते हैं।
• अंततः पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु गलने सडने पर बैक्टीरियाओं के द्वारा वायुमंडल में विलय हो जाते है।
पारिस्थितिक तंत्र का महत्व (Importance of Ecosystem)
• जीवमण्डल में पाए जाने वाले विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों के घटक परस्पर संबंधित रहते हैं और जिससे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है।
• अतः पारिस्थितिक तंत्र का महत्व पर्यावरण संतुलन रखने में है।
• हम जानते हैं कि कोई भी जीवधारी अकेला जीवित नहीं रह सकता है।
क्या आप सोच सकते हो कि यदि प्रकृति में उत्पादक नहीं होंगे तो क्या होगा ?
• सभी जीवधारी दूसरे जीवधारियों पर किसी न किसी रूप में निर्भर रहते हैं।
पारिस्थितिक तंत्रों के कारण पर्यावरण में न किसी जीव की अधिकता हो पाती है न कमी ।
• इस प्रकार पारिस्थितिक तंत्र में पाई जाने वाली खाद्य शृंखलाएँ एवं खाद्य जाल का पर्यावरण के स्थायित्व एवं संतुलन बनाए रखने में विशेष महत्व होता है।
पारिस्थितिक तंत्र- मानव स्थापना एवं भूमि के वितरण पर जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव
• भूमि एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। यह सम्पूर्ण जीव जगत का आधार है।
• निरंतर बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति यह भू-भाग कम होता जा रहा है।
• इस भू-भाग में कृषि योग्य भूमि के साथ वन क्षेत्र की भूमि व बंजर भूमि भी सम्मिलित है।
• जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ भूमि कम होती जा रही है।
● क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के कारण सड़कें, आवासीय कॉलोनियाँ, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस, अन्य विभागों हेतु भवन निर्माण, एयरपोर्ट, बस अड्डे अथवा अन्य संचार कार्यों हेतु भूमि के उपभोग में वृद्धि के कारण वन्य क्षेत्र में कमी आ रही है।
• इससे प्रकृति में असंतुलन की स्थिति निर्मित हो रही है।
• जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि आपूर्ति की माँग बढ़ गई है एवं कृषि योग्य भूमि में भी कमी आ रही है।
• भूमि का आवंटन रासायनिक खादों तथा कीटनाशक दवाइयों के अत्यधिक उपयोग से भूमि का उपजाऊपन कम हो रहा है।
• पेड़-पौधों की लगातार कटाई से प्रति वर्ष लाखों हेक्टेयर भूमि के ऊपरी सतह नदी तथा वर्षा के जल अथवा बाढ़ से बह जाती है।
• इससे भी भूमि का उपजाऊपन कम होता जा रहा है।
• कुछ क्षेत्रों में इस कारण उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में परिवर्तित हो गई है।
भूमिका
पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त वायुमंडल प्राकृतिक पर्यावरण तथा जैवमंडलीय पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण संघटक है। क्योंकि जैवमंडल में जीवन का अस्तित्व वायुमंडल में निहित गैसों के कारण ही संभव हो पाता है।
वायुमंडल एक फिल्टर की तरह भी कार्य करता है, क्योंकि यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी विकिरण को सोख लेता है तथा उन्हें पथ्वी की सतह पर पहुँचने से रोकता है।
इस कारण भूतल के तापमान में आवश्यकता से अधिक वृद्धि नहीं होती है।
• जलवायु किसी स्थान के लंबे समय की मौसमी घटनाओं का औसत होती है।
• पृथ्वी की जलवायु स्थैतिक नहीं है।
• मौसम तथा जलवायु में प्राकतिक कारणों से स्थानीय, प्रादेशिक एवं वैश्विक स्तरों पर परिवर्तन होते रहते हैं परंतु औद्योगिक क्रांति के बाद विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में विकास के कारण मानव द्वारा वायुमंडलीय प्रक्रमों में तीव्र गति से परिवर्तन होने लगा है क्योंकि मनुष्य अब वायुमंडलीय संघटकों की मौलिक संरचना में परिवर्तन तथा परिमार्जन करने में समर्थ हो गया है।
• इसका असर मानव जाति समुदाय, वनस्पति एवं जन्तुओं पर पड़ने लगा है।
खासकर मानव जाति के स्वयं का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
• जलवायु में हुआ यह परिवर्तन ही जलवायु परिवर्तन कहलाता है।
आज जिस जलवायु परिवर्तन की बात होती है, उसका अर्थ 100 साल पहले मानव गतिविधियों द्वारा हुए जलवायु परिवर्तन से है।
• जलवायु परिवर्तन का भौगोलिक अभिप्राय मौसमी प्रतिरूप में लंबे समय तक के परिवर्तन से है।
• जलवायु परिवर्तन सामान्यतः तापमान, वर्षा, हिम एवं पवन प्रतिरूप में आए एक बड़े परिवर्तन द्वारा मापा जाता है, जो कई वर्षों में होता है।
• मनुष्य द्वारा जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस) को बड़ी मात्रा में जलाए जाने, निर्वनीकरण (जिससे वनों की कार्बन अवशोषण की क्षमता घटती है एवं उसमें संचित कार्बन वायुमंडल में निर्मुक्त होने लगता है) आदि से जलवायु परिवर्तन हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन के संकेतक
पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर अब तक जलवायु में अनेक बार परिवर्तन हुए हैं।
पृथ्वी के विगत काल में हुए जलवायु परिवर्तनों के साक्ष्यों को जलवायु परिवर्तन के संकेतक कहते हैं।
यहाँ कुछ पुरा-जलवायु (Paleoclimate) के संकेतकों का विवरण दिया जा रहा है
जैविक संकेतक
वानस्पतिक संकेतक
• पौधों के जीवाश्म
• ऑक्सीजन आइसोटोप
• वृक्ष के तने में पाए जाने वाले वलय में वृद्धि
प्राणिजात संकेतक
प्राणिजात
जीवाश्म
जंतुओं का वितरण एवं प्रसारण
भौमिकीय संकेतक
• हिमानी निर्मित झीलों में अवसादों का निक्षेपण
• कोयला अवसादी निक्षेप
• मृदीय संकेतक
उच्च अक्षांशों में हिमानियों के आगे बढ़ने व पीछे हटने के अवशेषी चिह्न
हिमीय संकेतक
हिमानीकरण : भूगर्भीय अभिलेखों से हिमयुगों (Ice Age) और अंतर-हिमयुगों में क्रमशः परिवर्तन प्रक्रिया का प्रकट होना।
विवर्तनिक संकेतक
(i) प्लेट विवर्तनिकी (Plate Tectonics)
• ध्रुवों का भ्रमण एवं महाद्वीपीय प्रवाह
• पुराचुम्बकत्व एवं सागर नितल प्रसरण
(ii) सागर तल में परिवर्तन
ऐतिहासिक अभिलेख
(i) बाद अभिलेख
(ii) सूखा अभिलेख
जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारक
• जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है, जो प्राकृतिक एवं मानवीय कारकों द्वारा प्रभावित होती है।
• औद्योगीकरण से पहले इस प्रक्रिया में मानवीय कारकों की भूमिका कम थी।
• औद्योगीकरण, नगरीकरण की प्रक्रिया तथा संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वैश्विक तापन व प्रदूषण के रूप में गंभीर समस्या सामने आई।
जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक व मानवीय कारक निम्न हैं
प्राकृतिक कारकों का जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव
वायुमंडल सामान्यतः अस्थिरता की दशा में रहता है, जिस कारण मौसम एवं जलवायु में समय एवं स्थान के संदर्भ में अल्पकालीन से लेकर दीर्घकालीन परिवर्तन होते रहते हैं।
• दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन हजारों वर्षों तक स्थायी होते हैं एवं अत्यन्त धीमी गति से घटित होते हैं।
सौर विकिरण में विभिन्नता
• पृथ्वी के कक्षीय स्थिति में बदलाव या पृथ्वी के अक्षीय झुकाव आदि में परिवर्तन के कारण पृथ्वी को प्राप्त होने वाले सूर्यातप (Insolation) की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है।
• सौर्थिक विकिरण की मात्रा में दीर्घकालिक वृद्धि होने से वायुमंडल का ऊष्मन होता है, जिस कारण गर्म जलवायु का आविर्भाव होता है तथा हिमचादरें एवं हिमनद पिघलने लगती हैं।
सौरकलंक चक्र (Sunspot Cycle)
• सौरकलंक (सूर्य पर काले धब्बे) की संख्या बढ़ने से सौरकलंक की सक्रियता में वृद्धि होती है, जिससे सौर विकिरण की मात्रा में वृद्धि होती है।
• इस कारण पृथ्वी के धरातलीय सतह एवं उसके वायुमंडल का ऊष्मन होता है।
• इसी प्रकार सौरकलंक की संख्या घटने से सौर विकिरण की मात्रा में ह्रास होता है जिससे वायुमंडलीय तापमान में गिरावट आती है।
ज्वालामुखीय भेदन
• ज्वालामुखीय उद्गार द्वारा निस्सृत धूल एवं राख लघु तरंग सौर्थिक विकिरण के कुछ भाग का निचले क्षोभमंडल में प्रकीर्णन (Scattering), परावर्तन (Reflection ) एवं अवशोषण (Absorption) द्वारा क्षय कर देते हैं जिसके फलस्वरूप धरातलीय सतह पर पहुँचने वाली सौर्थिक विकिरण की मात्रा कम हो जाती है।
चूंकि निचले वायुमंडल का तापमान ही पृथ्वी की सतह पर मौसम एवं जलवायु को नियंत्रित करता है अतः ये पृथ्वी के शीतलन का कारण बनते हैं।
1991 में फिलीपीन्स में पिनाटोबा ज्वालामुखी उद्भेदन के बाद पृथ्वी का औसत ताप लगभग 0.5°C तक गिर गया था।
पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन (Change in Orbit of Earth)
• पृथ्वी की कक्षा दीर्घ वृत्ताकार है, जिसका अर्थ यह है कि सूर्य एवं पृथ्वी के मध्य की दूरी का अंतर वर्षभर परिवर्तित होता रहता है।
• पृथ्वी की कक्षा में यह धीमा परिवर्तन अग्रगमन (Precession) कहलाता है।
• यह अग्रगमन तापमान में वृद्धि तथा कमी दोनों के लिये उत्तरदायी होता है, जो जलवायु परिवर्तन का कारण है।
वायुमंडलीय गैसीय संयोजन में परिवर्तन
• वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प आदि की मात्रा में निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
• इनके उत्सर्जन में मुख्यतः प्राकृतिक कारक ही सम्मिलित रहते हैं, द्वारा निर्मित इन गैसों के असंतुलन का विभिन्न चक्रों द्वार रहता है।
• लेकिन मानव जनित कारण जब पृथ्वी के इस संतलुन में बदलाव लाते हैं तो उसकी क्षतिपूर्ति प्रकृति नहीं कर पाती।फलस्वरूप परिवर्तन जैसी घटना घटित होती है।
महाद्वीपीय विस्थापन (Continental Drift)
महाद्वीपीय विस्थापन से संबंधित विभिन्न सिद्धांत जैसे वेगनर का महाद्वीपीय सिद्धांत, हैरी हैस का सागर नितल प्रसरण एवं मार्गन का प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत भी जलवायु परिवर्तन के कारणों की व्याख्या में सहायक होते हैं।
मानवजनित कारक और उनका जलवायु परिवर्तन में योगदान
• संसाधनों का दुरुपयोग
• नगरीकरण एवं तीव्र औद्योगीकरण
• ईंधन का ह्रास (जीवाश्म ईंधन का प्रयोग आदि)
• बड़े पैमाने पर भू-उपयोग में बदलाव (निर्वनीकरण आदि)
वातावरण में Co2 आदि GHGs के उत्सर्जन में वृद्धि
समतापमंडल में ओजोन ह्रास, तापमान में वृद्धि
मानव द्वारा आर्थिक उद्देश्यों एवं भौतिक लक्ष्यों की प्रप्ति हेतु प्रकृति के साथ व्यापक छेड़छाड़ के क्रियाकलापों ने प्राकृतिक पर्यावरण का संतुलन नष्ट किया है।
• इस तरह की समस्याए पर्यावरणीय अवनयन कहलाती हैं।
• यह पर्यावरण अवनयन ही जलवायु परिवर्तन एवं प्रदूषण आदि के रूप में मानव के समक्ष समस्या बनकर उभरा है।
जलवायु परिवर्तन का मानव एवं पारितंत्र पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन मानव एवं पारिस्थितिक तंत्र को काफी समय से प्रभावित कर रहा है। इस तथ्य की सत्यता ग्लेशियरों के पिघलने, ध्रुवीय बर्फ के खंडित होने, मानसून के तरीके में परिवर्तन, समुद्र के बढ़ते जलस्तर, बदलते पारिस्थितिक तंत्र एवं घातक ताप लहर के रूप में देखी जा सकती है।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव एवं बीमारियाँ (जैसे- मलेरिया)
• कृषि एवं भोजन सुरक्षा तथा आहार गुणवत्ता पर प्रभाव
• पारितंत्र एवं जैव-विविधता पर प्रभाव
जल के लिये तनाव एवं जल असुरक्षा
• ग्लेशियर का पिघलना
• समुद्री जल स्तर में वृद्धि
वायुमंडलीय एवं सामुद्रिक तापमान में वृद्धि
भूमि संसाधन पर प्रभाव
• अत्यंत कठोर मौसमी घटनाएँ
वैश्विक तापन (Global Warming)
• वैश्विक स्तर पर मानवीय क्रियाकलापों द्वारा विकिरण या ऊष्मा संतुलन में परिवर्तन हो रहा है जो भूमंडलीय ऊष्मन तथा उससे जनित भूमंडलीय पर्यावरण परिवर्तन के रूप में विश्व के समक्ष समस्या उत्पन्न कर रहा है।
• क्षोभमंडल में पृथ्वी की सतह के करीब के वातावरण के औसत तापमान में वृद्धि को भूमंडलीय तापन कहते हैं, जिसके कारण वैश्विक जलवायु प्रतिरूप में परिवर्तन आता है।
• सामान्यतः मानव क्रियाओं द्वारा उत्सर्जित हरितगृह गैसों में वृद्धि के परिणामतः उत्पन्न ताप वृद्धि को वैश्विक तापन कहते हैं।
हरित गृह (Greenhouse)
• हरितगृह एक भवन की तरह होता है जो शीशे की दीवारों से बने होते हैं।
• ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों या ठंडे देशों में इन हरितगृहों में पौधों को उगाने का कार्य किया जाता है।
• बाहरी तापमान के निम्न रहने के बावजूद हरितगृहों के तापमान में वृद्धि होती रहती है।
• पृथ्वी भी एक हरितगृह की भाँति कार्य करती है। पृथ्वी की हरितगृह गैसें, जो पृथ्वी के निचले वायुमंडल में पाई जाती हैं, पृथ्वी को एक कम्बल की भाँति लपेटे रहती हैं एवं यह हरितगृह के शीशे की तरह कार्य करती है।
• अर्थात् वह सौर्य विकिरण की आने वाली लघु तरंगदैर्ध्या को तो आने देती हैं परंतु पृथ्वी से लौटती दीर्घ तरंगदैर्ध्य विकिरण (पार्थिव विकिरण) को अवशोषित कर लेती है।
• यह समायोजन ताप तरंगों को नियंत्रित रूप से पृथ्वी की सतह से अंतरिक्ष के बाह्य पटल में भेजती है।
• इससे पृथ्वी के ऊपर आवरण सा बन जाता है जिस कारण पृथ्वी गर्म एवं रहने योग्य रहती है।
अतः एक प्राकृतिक ग्रीनहाउस पृथ्वी की सतह को गर्म रखता है तथा उसे एक निश्चित तापमान प्रदान करता है।
• यह समायोजन ताप तरंगों को नियंत्रित रूप से पृथ्वी की सतह से अंतरिक्ष के बाह्य पटल में भेजती है।
• इससे पृथ्वी के ऊपर आवरण सा बन जाता है जिस कारण पृथ्वी गर्म एवं रहने योग्य रहती है।
अतः एक प्राकृतिक ग्रीनहाउस पृथ्वी की सतह को गर्म रखता है तथा उसे एक निश्चित तापमान प्रदान करता है।
प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव (Natural Greenhouse Effect)
• हरितगृह गैसें जो कि वातावरण में प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं, प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव हेतु ज़िम्मेदार होती हैं।
• इस प्रक्रिया के द्वारा पृथ्वी की सतह गर्म एवं रहने योग्य बनती है।
• प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव पृथ्वी को माध्य तापमान (15°C) पर गर्म रखता है।
हरित गृह गैसें (Greenhouse Gases)
• हरितगृह गैस का अर्थ वातावरण की उन गैसों से है जो प्राकृतिक एवं मानव जनित दोनों होती हैं।
• ये अवरक्त विकिरण (Infrared Radiation) को अवशोषित करती हैं एवं पुनः छोड़ती हैं।
जलवाष्प तथा CO, वायुमंडल में पाई जाने वाली गैसों में प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं तथा किसी क्षेत्र में अवरक्त विकिरणों (12 से 20p) को ज्यादा से ज्यादा अवशोषित करती हैं।
अन्य मुख्य ग्रीनहाउस गैसें हैं- CH, (मीथेन), N, O (नाइट्रस ऑक्साइड) तथा क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC)|
जलवाष्य (Water Vapour )
जलवाष्प वायुमंडल में सबसे अधिक परिवर्तनशील तथा असमान वितरण वाला घटक है।
• इसकी मात्रा विभिन्न ऊँचाइयों पर भिन्न-भिन्न होती है।
• ऊँचाई के साथ जलवाष्प की मात्रा घटती है।
• इसके अलावा निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर जाने पर भी इसमें कमी आती है।
• जलवाष्प सूर्यातप के कुछ अंश को ग्रहण कर धरातल पर सूर्यातप की मात्रा को कम करता है।
• यह पार्थिव विकिरण को अवशोषित कर CO, की भाँति ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न करता है
मानव जलवाष्प उत्सर्जन हेतु प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार नहीं माने जाते हैं, क्योंकि वे जलवाष्प की उतनी मात्रा उत्सर्जित नहीं करते जिससे वातावरण के सांद्रण में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो जाए।
हालाँकि, वातावरण में जलवाष्प की मात्रा बढ़ने का कारण CO, एवं अन्य हरितगृह गैसें भी हैं, जिनके कारण पौधों के वाष्पोत्सर्जन दर में तेजी आ जाती है।
साथ ही CO, की तरह जलवाष्प हवा में स्थायी नहीं रह सकती, क्योंकि यह जल चक्र द्वारा जल भंडारों एवं वर्षा तथा हिम के रूप में परिवर्तित होती रहती है।
कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon dioxide )
• कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विक तापन में 60% की भागीदारी करती है।
• यह एक प्राथमिक हरितगृह गैस है जो कि मानवीय क्रियाओं द्वारा उत्सर्जित होती है।
• कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में प्राकृतिक रूप से पृथ्वी के कार्बन चक्र (कार्बन का वातावरण, समुद्र, मृदा, वनस्पति एवं जीवों के बीच प्राकृतिक प्रवाह) के रूप में मौजूद रहती है।
• यह एक प्रमुख ताप अवशोषक गैस है।
• वातावरणीय कार्बन डाइऑक्साइड में कोई परिवर्तन वातावरण के तापमान को परिवर्तित कर सकता है।
मीथेन (Methane)
• वैश्विक तापन में यह गैस 20% का योगदान करती है।
यह वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड CO, की अपेक्षा काफी कम मात्रा में मौजूद होती है परंतु इसका महत्त्व अधिक है।
● क्योंकि मीथेन पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित अवरक्त किरणों के अवशोषण में CO2 से औसतन 20 से 30 गुना ज्यादा सक्षम है।
• मीथेन अपूर्ण अपघटन (incomplete decomposition) का उत्पाद है एवं अनॉक्सी दशाओं (anaerobic conditions) में मीथेनोजन जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होती है।
• मीठे जल वाली आर्द्रभूमि से मीथेन का उत्सर्जन होता है क्योंकि कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीजन अपघटन होने से मीथेन का उत्पादन होता है।
• दीमक सेल्युलोज का पाचन करते हैं एवं इस क्रम में मीथेन का उत्पादन करते हैं।
• बाढग्रस्त खेतों में तथा कच्छ क्षेत्रों में मीथेनोजन जीवाणुओं द्वारा अनॉक्सी क्रिया के फलस्वरूप मीथेन का उत्पादन होता है।
• चरने वाले जानवर जैसे- बैल एवं भेड़ द्वारा भी मीथेन गैस उत्पन्न होती है।
• कोयला खनन एवं तेल तथा प्राकृतिक गैस हेतु खनन मीथेन उत्सर्जन के अन्य स्त्रोत हैं।
नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)
• नाइट्रस ऑक्साइड पृथ्वी के नाइट्रोजन चक्र के रूप में वातावरण प्राकृतिक रूप से मौजूद रहती है।
• यह गैस वैश्विक वैश्विक तापन हेतु 6% जिम्मेदार है।
• नाइट्रस ऑक्साइड को लाफिंग गैस (laughing gas) भी कहा जाता है।
फ्लूरीनेटेड गैसें (Fluorinated Gases)
• वैश्विक तापन में इनका 14% योगदान है।
• वातावरण में इनका उत्सर्जन ओज़ोन विघटनकारी पदार्थों (CFC आदि) के प्रतिस्थापन के रूप में तथा कई औद्योगिक प्रक्रियाओं, जैसे- एल्युमिनियम एवं अर्द्धचालक के निर्माण द्वारा होता है।
• अधिकांश फ्लूरीनेटेड गैसों की अन्य हरितगह गैसों की अपेक्षा उच्च वैश्विक तापन क्षमता (High global warming potentials-GWPs) होती है।
• फ्लूरीनेटेड गैसें सबसे प्रबल एवं दीर्घजीवी प्रकार की ग्रीनहाउस गैस हैं जो मानव क्रियाकलापों द्वारा उत्सर्जित होती हैं।
फ्लूरीनेटेड गैसें प्रमुखतः 3 प्रकार की होती हैं-
1. HFCs (Hydrofluorocarbons- हाइड्रोफ्लुरोकार्बन)
2. PFCs (Perfluorocarbons परफ्लूरोकार्बन)
3. SF (Sulfur hexafluoride सल्फर हेक्साफ्लूराइड)
HFCs (Hydrofluorocarbons)
• हाइड्रोफ्लुरोकार्बन को ओज़ोन विघटनकारी गैसों, जैसे- CFCs एवं HCFCs के प्रतिस्थापन के रूप में लाया गया था।
• हालाँकि इस गैस द्वारा ओजोन का विघटन नहीं होता परंतु यह एक प्रबल हरितगृह गैस है एवं जलवायु परिवर्तन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
• चूंकि इसके द्वारा वैश्विक तापन में बढ़ोतरी होती है।
अतः इसे क्योटो प्रोटोकॉल द्वारा विनियमित किया जाता है, न कि मांट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा।
HFCs को दीर्घ वातावरणीय जीवन अवधि होती है एवं उच्च वैश्विक तापन क्षमता (GWPs) होती है।
• ये शीतप्रशीतक, एरोसॉल नोदक, विलायक एव अग्निशमन यंत्रों में प्रयोग किये जाते हैं।
HFCs को दीर्घ वातावरणीय जीवन अवधि होती है एवं उच्च वैश्विक तापन क्षमता (GWPs) होती है।
• ये शीतप्रशीतक, एरोसॉल नोदक, विलायक एव अग्निशमन यंत्रों में प्रयोग किये जाते हैं।
जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव आने को कहते हैं। जलवायु की दशाओं में यह बदलाव प्राकृतिक भी हो सकता है और मानव के क्रियाकलापों का परिणाम भी ।
जलवायु परिवर्तन के कारक
1. प्राकृतिक कारक
2. मानवजनित कारक
महाद्वीपीय विस्थापन
* महाद्वीपीय संवहन की वजह से समुद्री धाराएँ तथा हवाएँ प्रभावित होती हैं और इनका सीधा प्रभाव पृथ्वी की जलवायु पर पड़ता है।
ज्वालामुखी
* ज्वालामुखी विस्फोट होने पर बड़ी मात्रा में विभिन्न गैसें जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, जलवाष्प आदि तथा धूलकण वायुमण्डल में उत्सर्जित होते हैं
एक अनुमान के अनुसार, प्रतिवर्ष लगभग 100 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस ज्वालामुखी विस्फोट द्वारा वायुमण्डल में फैल जाती है।
पृथ्वी का झुकाव
* पृथ्वी के झुकाव में बदलाव के कारण ऋतुओं में परिवर्तन होता है।
* अधिक झुकाव अर्थात अधिक गर्मी तथा अधिक सर्दी और कम झुकाव अर्थात कम गर्मी तथा कम सर्दी का मौसम |समुद्री धाराएँ
* सागरों को कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा सिंक कहा जाता है।
* वायुमण्डल की अपेक्षा 50 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड गैस समुद्र में होती है।
* समुद्री बहाव में बदलाव आने से जलवायु प्रभावित होती है।
मानवीय गतिविधियाँ
शहरीकरण
औद्योगिकीकरण
वनान्मूलन
रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग
ग्रीन हाउस प्रभाव
विभिन्न प्राकृतिक एवं मानवीय गतिविधियों के कारण कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन तथा अन्य हैलोजन जैसी गैसें वायुमण्डल की ऊपरी परत में फैल जाती हैं, जिसकी वजह से सूर्य की किरणें जो पृथ्वी से परावर्तित होती हैं,
वे वातावरण की पर्त के बाहर नहीं निकल पातीं और लौटकर पृथ्वी पर ही आ जाती हैं जिससे पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ जाता है।
इसी को ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं और इसका निर्माण करने वाली गैसों को ग्रीन हाउस गैस कहते हैं
* ग्रीन हाउस इफेक्ट वह प्रक्रिया है जिसके तहत धरती का पर्यावरण सूर्य से हासिल होने वाली उर्जा के एक हिस्से को ग्रहण कर लेता है और इससे तापमान में वृद्धि होती है।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैसों को जिम्मेदार माना जाता है।
* यह सभी वातावरण कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ा देते हैं।
* उपग्रह से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में समुद्र के जल स्तर में सालाना 3 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हुई है।
* सालाना 4 प्रतिशत की रफ़्तार से ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
* जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण वैश्विक तपन है जो हरित गृह प्रभाव (ग्रीन हाउस इफेक्ट) का परिणाम है।
* हरित गृह प्रभाव वह प्रक्रिया जिसमें पृथ्वी से टकराकर लौटने वाली सूर्य की किरणों को वातावरण में उपस्थित कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं जिसके परिणामस्वरुप पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है।
* 1990-2000 ई. के अंतराल में विश्व भर में लगभग 60000 से ज्यादा लोगों की मृत्यु प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुई.
* 2014 सबसे गर्म साल माना गया. इससे पहले 2010 को सबसे ज्यादा गर्म साल माना गया था
* वैश्विक वायु प्रदूषण (जीवाश्म) में कुल 25% वायु प्रदूषण अमेरिका ही करता है
* विश्व भर में 40% विद्युत उत्पादन कोयले के प्रयोग से ही होता है।
मुख्य ग्रीनहाउस गैसें
कार्बन डाइऑक्साइड
* प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारणों से उत्सर्जित होती है।
* सबसे अधिक उत्सर्जन ऊर्जा हेतु जीवाश्म ईंधन को जलाने से
* औद्योगिक क्रांति के पश्चात् वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 30% की बढ़ोतरी
मीथेन
* जैव पदार्थों का अपघटन मीथेन का एक बड़ा स्रोत है।
* मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड से अधिक प्रभावी ग्रीनहाउस गैस है, परंतु वातावरण में इसकी मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा कम है।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन
इसका प्रयोग मुख्यतः रेफ्रिजरेंट और एयर कंडीशनर आदि में किया जाता है एवं ओज़ोन परत पर इसका काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
ओजोन-भूमिका ( Introduction)
• ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल में (समताप मंडल के अंतर्गत) प्राकृतिक ओजोन गैस की एक मेखला है, जो सूर्य द्वारा उत्सर्जित हानिकारक पराबैंगनी किरणों (Ultra Violet Rays) से रक्षा के लिये कवच का कार्य करती है।
• इस सुरक्षात्मक आवरण का मानव द्वारा क्षरण हो रहा है एवं यह क्षरण न सिर्फ उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के ऊपर बल्कि यह समूचे ताप कटिबंधों के ऊपर हो रहा है।
• यह क्षरण ओजोन गैस की वायुमंडलीय गैसों से रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप ऑक्सीजन में बदलने से संपन्न हो रहा है।
• ओजोन या ट्राइऑक्सीजन (O3) एक ट्राइएटॉमिक अणु (Triatomic Molecule) है जो तीन ऑक्सीजन परमाणु से बना होता है।
• यह एक प्राकृतिक गैस है जिसका रासायनिक प्रतीक (Os) होता है।
• ओज़ोन हमारे वायुमंडल में दुर्लभ रूप में पाया जाता है।
• प्रत्येक दस लाख हवा के अणुओं पर औसतन करीब तीन ओजोन अणु पाए जाते हैं।
• इस छोटी-सी मात्रा के बावजूद ओज़ोन की हमारे वायुमंडल में जीवंत भूमिका है।
ओज़ोन कालानुक्रम (Ozone Chronology)
1840 : ओज़ोन अणु की पहचान एवं नामकरण ।
1900 : समतापमंडल की पहचान
1920 : अमोनिया के सुरक्षित विकल्प के रूप में CFC का आविष्कार
• 1930 प्राकृतिक (चैपमैन चक्र) ओजोन प्रतिक्रिया की पहचान
1970 : सपरसोनिक विमानों के परिवहन से समतापमंडल क्षति की चिंता । अंटार्कटिक के ऊपर समतापमंडल के निचले भाग में ओजोन परत की क्षति की ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे द्वारा पहचान की गई।
ऑक्सीजन अणुओं के सौर प्रकाश की पराबैंगनी के साथ अभिक्रिया से ओजोन का निर्माण होता है।
समताप मंडल में इसी प्रक्रिया द्वारा ओजोन का निर्माण होता रहता है।
O2 + फोटॉन (सौर प्रकाश) 20 पुनः 0+02: 03
[परंतु साथ ही यह आक्सीजन परमाणु के साथ प्रतिक्रिया कर नष्ट हो जाता है-
02+0=202]
1. प्राकृतिक प्रक्रिया (Natural Process)
(a) सूर्य के ग्यारहवर्षीय चक्र के अंत में सौरकलंक में वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण सौर्थिक क्रिया में वृद्धि हो जाती है। इस चक्र को सौर कलंक (Sunspots) चक्र भी कहते हैं।
• सौर्थिक क्रिया में वृद्धि के फलस्वरूप आवेशित कण (Charged Particles) मुक्त होत हैं जिनके पृथ्वी से टकराव की वजह से नाइट्रोजन गैस एवं जलवाष्प का विघटन होता है।
• नाइट्रोजन गैस के विघटन से नाइट्रोजन परमाणु मुक्त होते हैं जो ऑक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया कर नाइट्रोजन ऑक्साइड का निर्माण करते हैं।
जलवाष्प के विघटन से हाइड्रॉक्साइड अणु (OH) एवं हाइड्रोजन के एक अणु का निर्माण होता है तथा ये सभी ओज़ोन से प्रतिक्रिया कर उसके स्तर में कमी लाते है।
मानव जनित प्रक्रिया
gradation aboorted by tophere and Earth absorbed by
• मानव जनित प्रक्रिया जिसके कारण वायुमंडल में क्लोरीन, ब्रोमीन आदि परमाणुओं का उत्सर्जन होता है, वे ओजोन विनाश का कारण बनते हैं।
• इन परमाणुओं को धारण करने वाले पदार्थ ओजोन विघटनकारी पदार्थ कहलाते हैं।
• सामान्यतः इनमें क्लोरीन, फ्लोरीन, कार्बन एवं ब्रोमीन विभिन्न मात्राओं में पाए जाते हैं
• इन्हें हैलोकार्बन की संज्ञा दी जाती है।
ओजोन विघटनकारी पदार्थ दो कारणों से ओजोन का विघटन काफी कुशलतापूर्वक करते है
1. इन पदार्थों का विघटन निचले वायुमंडल में नहीं होता तथा वे वायुमंडल में 20 से 120 वर्षों तक रह सकते हैं।
वे पृथ्वी पर वापस जल के साथ नहीं आ पाते एवं समतापमंडल की ओर बढ़ते जाते हैं।
2. ये पदार्थ या तो क्लोरीन या ब्रोमीन या फिर दोनों को सम्मिलित किये हुए होते हैं। जब ये एक बार समतापमंडल में पहुँच जाते हैं ता पराबैंगनी किरणें इन अणुओं को क्लोरीन (जैसे- CFC, मिथाइल क्लोरोफॉर्म या कार्बन टेट्राक्लोराइड में सम्मिलित) एवं ब्रोमीन (eg.- लॉन एवं मिथाइल ब्रोमाइड में सम्मिलित) में तोड़ देती हैं, जो ओजोन क्षरण करते हैं।
आजोन विघटनकारी पदार्थों की सूची
CFCs (क्लोरोफ्लोरोकार्बन Chlorofluorocarbons)
• HCFCs (हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन Hydrochlorofluorocarbons) ये फेरॉन (Ferons) भी कहलाते हैं।
Halon (हैलॉन)
HBFCs (हाइड्रोब्रोमोफ्लूरोकार्बन Hydrobromofluorocarbons)
CCI4 (कार्बन टेट्राक्लोराइड Carbon Tetrachloride)
CH3CCI3 (मिथाइल क्लोरोफॉर्म Methyl Chloroform) CH3Br (मिथाइल ब्रोमाइड Methyl Bromide)
CH2BCI (ब्रोमोक्लोरोमीथेन Bromochloromethane)
NOx (नाइट्रोजन ऑक्साइड Nitrogen Oxide)
नोट: मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा नियंत्रित
क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs)
• समतापमंडलीय ओज़ोन क्षरण हेतु ज़िम्मेदार पदार्थों में सबसे मुख्य क्लोरोफ्लोरोकार्बन है।
CFCs अणु क्लोरीन, फ्लोरीन एवं कार्बन से बना होता है।
• इसका व्यापारिक नाम फ्रेऑन (Freon) है।
CFCs क्षोभमंडल ( Troposphere) में मानव द्वारा मुक्त किये जाते हैं एवं यादृच्छिक (Random) तरीके से विसरण (Diffusion) द्वारा ऊपर की ओर बढ़ते हुए समतापमंडल में चले जाते हैं।
• यहाँ पर ये 65 से 110 साल तक ओज़ोन अणुओं का क्षरण करते रहते हैं।
चूँकि ये ऊष्मीय रूप से स्थिर होते हैं अतः ये क्षोभमंडल में उपस्थित रह पाते हैं।
• परंतु समतापमंडल में UV किरणों द्वारा ये नष्ट हो जाते हैं।
• रेफ्रिजरेटर एवं एयर कंडीशनर में प्रशीतक (Coolant) के रूप में।
• प्रणोदक (Propellant) के रूप में एरोसॉल स्प्रे (Aerosol Spray) में
• फोमिंग एजेंट (Foaming Agent) के रूप में प्लास्टिक निर्माण में
• मशीन तथा धात्विक वस्तुओं की सफाई करने वाले विलायक (Cleaning Solvent) के रूप में।
आग बुझाने वाले कारक के रूप में।
• स्टरलाइज़र्स (Sterilizers) एवं स्टाइरोफोम (Styrofoam) में
CFCs का 2/3 भाग रेफ्रिजरेटर में एवं 1/3 भाग फोम इंशुलेशन उत्पाद (Foam Insulation Products) के रूप में उपयोग होता है।
कुछ सामान्य CFCS
CFC-11 (Trichlorofluoromethane)
CFC-12 (Dichlorodifluoromethane)
रासायनिक अभिक्रिया (CFCs द्वारा ओज़ोन विघटन)
Step 1 क्लोरोफ्लोरोकार्बन का प्रकाशीय विघटन
मानव जनित CFCs जब कई वर्षों बाद ऊपरी समतापमंडल में पहुँचता है तो पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में इसका विघटन होता है एवं क्लोरीन का एक परमाणु मुक्त होता है
CFC + सूर्यप्रकाश (<लगभग 260 nm) C1 + CFCL
Step 2 ओजोन का विघटन
1. क्लोरीन का एक मुक्त परमाणु ओजोन के अणु से प्रतिक्रिया कर क्लोरीन मोनोऑक्साइड (CIO) का निर्माण करता है।
2. क्लोरीन मोनोऑक्साइड का अणु आगे ऑक्सीजन (O2) के एक परमाणु (O) से संयुक् हो जाता है।
यह प्रतिक्रिया ऑक्सीजन अणु (O2) के निर्माण एवं मुक्त क्लोरीन परमाणु (C1) के पुनर्निर्माण में परिणत हो जाती है।
हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (HCFCs)
ये फ्लोरीन आधारित गैसों की द्वितीय पीढ़ी (Second Generation की गैसें हैं जो कि CFCs गैसों के विस्थापन के रूप में आई थीं।
इन उत्पादनों में मुख्य हैं-
HCFC-22 या R22
HCFC-123 या R123
हैलॉन एवं हाइड्रोब्रोमोक्लोरोकार्बन
• ब्रोमीन ( Bromine ) धारण करने वाले यौगिक हैलॉन एवं एच. बी. एफ. सी. अर्थात् हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन कहलाते हैं। दोनों यौगिक अग्निशामक यंत्र में उपयोग किये जाते हैं।
• हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन में ओज़ोन विघटनकारी क्षमता (Ozone Depleting Potential-ODP) होती है।
अतः वे ओज़ोन विघटन पदार्थ की तरह पहचाने गए हैं।
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FAQ
Q1.पर्यावरण क्या है और इसका महत्व क्या है?
Answer: हमारे आसपास के वातावरण ओर वायुमंडल प्राकृतिक संसाधनों के सामुहिक संयोजन को पर्यावरण कहते हैं
पर्यावरण के महत्व : पर्यावरण प्रथ्वी पर पाए जाने वाले जीव जंतु पादपों के जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है इस लिए प्रत्येक जीव को जीने के लिए एक प्राकृतिक पर्यावरण का बहुत बड़ा योगदान है |
Q2.पारिस्थितिकीय संरक्षण क्या है और कैसे हम इसमें योगदान दे सकते हैं?
Answer: पारिस्थितिकीय संरक्षण पर्यावरण में जीव जंतुओं के जीवन चक्र के प्राकृतिक तंत्र को पारिस्थितिकीय तंत्र कहा जाता है |
Q3.वन्यजीव संरक्षण क्यों जरूरी है और कैसे हम वन्यजीवों की संरक्षण कर सकते हैं?
Answer : वन्यजीव संरक्षण प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखने के लिए जरूरी है हम वन्यजीव संरक्षण उनके मूल स्थान जंगल या चिड़िया घर में रख कर हम वन्यजीव संरक्षण कर सकते हैं |
Q4.प्रदूषण क्या है और इसके प्रकार क्या हैं?
Answer : पर्यावरण प्रदूषक रसायन, जैविक ओर भौतिक कारक हो सकते हैं जीवित प्राणियों के लिए हानिकारक होते हैं।
प्रदूषण के प्रकार : प्रदूषण प्रकाश, प्रदूषणरेडियोधर्मी प्रदूषण,मृदा प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण,जल प्रदूषण,वायु प्रदूषण,
Q5.जलवायु परिवर्तन क्या है और इसके प्रमुख कारण क्या हैं?
Answer : जलवायु परिवर्तन सदियों या उससे अधिक समय में होने वाली जलवायु को जलवायु परिवर्तन कहते हैं । यह मुख्य रूप से कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस को जलाने के कारण पृथ्वी के वातावरण में तेजी से बढ़ती ग्रीनहाउस गैस के कारण बढ़ता जा रहा है
कारण : मुख्य कारण मनुष्य ही है। जलवायु में परिवर्तन कई वर्षों में धीरे-धीरे होता है। लेकिन मनुष्य के द्वारा अत्यधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के कारण प्राकृति आपना संतुलन खो रहीं हैं जिनका प्रणाम आज कल अत्यधिक तापमान के रूप में देखा जा सकता है
Q1. Ye ecology and environment pdf konse exam k liye hai
Answer :-ye eco and environment pdf one day exam se lekar upsc tak k sabhi Exam k liye Important hai